कविता : किसान की खरी खरी

थाली भरी निजाम की सह मौसम की मार
उनको मिला अवार्ड है पानी की बौछार

खेत चोर नायक बने गांव उजड़ते रोज
भूमिमाफ़िया करत हौ ग्लोबल गांव की खोज

उन गोरन के वक्त में डंडा जेल लगान
इन भूरन के वक्त में इंच इंच नीलाम

गांव गया जंगल गया बैल खेत सब बीज
ऐसी हवा विकास की सारा सपना सीज

झोला भंटा हाथ इक दूजे हाथ है ढोल
जसजस मारत तान वो तसतस खोलत पोल

परजीवी संसार का भरते पेट किसान
फांसी नए विकास की धरती हुई मसान

खेत खेत से जोड़ दो सारी दुनिया एक
कहाँ से आए बीच में अंधराष्ट्र के प्रेत

आंधी उठी है गांव में दिल्ली उठी है कांप
लाठी कहे किसान से संसद में क्यों सांप

सेव अडानी छाप हैं अंबानी इस्टोर
भीख मांगकर उदर भरे राष्ट्रवाद के मोर

गए गदरची रह गए देशन के गद्दार

राष्ट्रभक्त हैं जेल में हिटलर करे बिहार

किसान विरोधी भारतीय सत्ता और क्रोनी पूंजीवाद समर्थित विश्व बाजार की बारीक शिनाख्त करते हुए अपने ‘दोहा कोश हजार रा’ से कुछ बानगी ‘दोहे किसान के’ सीरीज के तहत पेश की जाती है। मेरी कविता सच्ची भारतीयता और स्वतंत्र मनुष्यता की खोज में यात्रा करती रही है और कर रही है। मेरे शब्द
किसानों के संघर्ष और स्वप्न के हथियार हैं।
—–*रामाज्ञा शशिधर
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